जौर-ए-ज़मीं न था सितम-ए-आसमाँ न था
वो भी था वक़्त जब कि ग़म-ए-दो-जहाँ न था
कोई भी लुत्फ़-ए-ज़ीस्त तह-ए-आसमाँ न था
दुनिया मिरी ख़राब थी तू मेहरबाँ न था
सुनता ये कौन ज़ब्त पे क़ाबू नहीं है अब
अच्छा हुआ जो कोई मिरा राज़-दाँ न था
दीवानगी ने बात बना दी कि उस से मैं
ज़िद कर रहा हूँ अब कि ये मेरा बयाँ न था
बदनाम ख़ुद हुए हो ज़बाँ से निकाल कर
मेरा सिवा तुम्हारे कोई राज़-दाँ न था
सज्दों की दाद मिल गई बाब-ए-क़ुबूल से
माना नज़र के सामने वो आस्ताँ न था
मायूसी-ए-नज़र के मनाज़िर हैं ख़ौफ़नाक
फिर आप ही कहेंगे मुझे ये गुमाँ न था
वो मेरे सामने थे मैं था उन के सामने
जब तक कि मेरा राज़ किसी पर अयाँ न था
लिल्लाह हम से क़िस्सा-ए-'आलिम' न पूछिए
सुनते हैं लाश पर कोई भी नौहा-ख़्वाँ न था
ग़ज़ल
जौर-ए-ज़मीं न था सितम-ए-आसमाँ न था
मिर्ज़ा अल्ताफ़ हुसैन आलिम लखनवी