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जताते रहते हैं ये हादसे ज़माने के | शाही शायरी
jatate rahte hain ye hadse zamane ke

ग़ज़ल

जताते रहते हैं ये हादसे ज़माने के

साइल देहलवी

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जताते रहते हैं ये हादसे ज़माने के
कि तिनके जमा करें फिर न आशियाने के

सबब ये होते हैं हर सुब्ह बाग़ जाने के
सबक़ पढ़ाते हैं कलियों को मुस्कुराने के

हज़ारों इश्क़-ए-जुनूँ-ख़ेज़ के बने क़िस्से
वरक़ हुए जो परेशाँ मिरे फ़साने के

हैं ए'तिबार से कितने गिरे हुए देखा
इसी ज़माने में क़िस्से इसी ज़माने के

क़रार-ए-जल्वा-नुमाई हुआ है फ़र्दा पर
ये तूल देखिए इक मुख़्तसर ज़माने के

न फूल मुर्ग़-ए-चमन अपनी ख़ुश-नवाई पर
जवाब हैं मिरे नाले तिरे तराने के

उसी की ख़ाक है माथे की ज़ेब बंदा-नवाज़
जबीं पे नक़्श पड़े हैं जिस आस्ताने के