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जल्वा-गर सोचों में हैं कुछ आगही के आफ़्ताब | शाही शायरी
jalwa-gar sochon mein hain kuchh aagahi ke aaftab

ग़ज़ल

जल्वा-गर सोचों में हैं कुछ आगही के आफ़्ताब

हनीफ़ साजिद

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जल्वा-गर सोचों में हैं कुछ आगही के आफ़्ताब
रौशनी से लिख रहा हूँ ज़िंदगानी का निसाब

पत्थरों से कब तलक बाँधेगी उम्मीद-ए-वफ़ा
ज़िंदगी देखेगी कब तक जागती आँखों से ख़्वाब

क्या ख़बर वो कौन हैं रोज़-ए-जज़ा के मुंतज़िर
चश्म-ए-बीना के लिए हर रोज़ है रोज़-ए-हिसाब

ख़ाक ज़िंदा गर करे हुस्न-ए-अज़ल की आरज़ू
दरमियाँ रहता नहीं फिर कोई भी तार-ए-हिजाब

जानते हैं वो हुसूल-ए-माया की हर इक सबील
हिफ़्ज़ हैं सज्जादगाँ को ख़ानक़ाही के निसाब

इंक़लाब-ए-सुब्ह की कुछ कम नहीं ये भी दलील
पत्थरों को दे रहे हैं आइने खुल कर जवाब