EN اردو
जलती रहना शम-ए-हयात | शाही शायरी
jalti rahna sham-e-hayat

ग़ज़ल

जलती रहना शम-ए-हयात

सिराज लखनवी

;

जलती रहना शम-ए-हयात
फिर न मिलेगी ऐसी रात

कह तो गई वो नीची निगाह
राज़ ही रखना राज़-ए-हयात

हम कुछ समझे वो कुछ और
ख़ामोशी में बढ़ गई बात

किस को सुनाएँ पूछे कौन
आह-ए-नीम-शबी की बात

रूह के मुंकिर जिस्म-परस्त
सहल नहीं इरफ़ान-ए-हयात

उफ़ ये दस्त-ए-तलब और हम
सब है वक़्त पड़े की बात

दामन से अब मुँह न छुपा
जा भी चुकी अश्कों की बरात

जिस ने न पाई अपनी पनाह
क्या देगा औरों को नजात

शेर वही है जिस में 'सिराज'
ख़ुद तड़पे रूह-ए-जज़्बात