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जैसे सुब्ह को सूरज निकले शाम ढले छुप जाए है | शाही शायरी
jaise subh ko suraj nikle sham Dhale chhup jae hai

ग़ज़ल

जैसे सुब्ह को सूरज निकले शाम ढले छुप जाए है

शफ़ीक़ देहलवी

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जैसे सुब्ह को सूरज निकले शाम ढले छुप जाए है
तुम भी मुसाफ़िर मैं भी मुसाफ़िर दुनिया एक सराए है

राज़-ए-ख़ुदी है ये फ़रज़ानो बेहतर है ये राज़ न जानो
जो ख़ुद को पहचाने है वो दीवाना कहलाए है

फ़हम-ओ-ख़िरद से जोश-ए-जुनूँ तक हर मंज़िल से गुज़रे हैं
हम तो दीवाने हैं भाई हम को क्या समझाए है

हिज्र की शब यूँ थपक थपक कर मुझ को सुलाये तेरी याद
जैसे माँ की लोरी सुन कर इक बच्चा सो जाए है

जब से तुम ने आँखें फेरीं सब ने ही मुँह फेर लिया
हाए शब-ए-हिज्राँ क्या कहिए शबनम आग लगाए है

कोई मुझ से मुझे मिला दे मुझ को है अपनी ही तलाश
बस्ती बस्ती ये दीवाना कैसा शोर मचाए है

जिस ने सब के ग़म बाँटे हैं हम वो दीवाने हैं 'शफ़ीक़'
ये वो दौर है जिस में हर इक अपनी आग बुझाए है