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जैसे किसी तूफ़ान का ख़दशा भी नहीं था | शाही शायरी
jaise kisi tufan ka KHadsha bhi nahin tha

ग़ज़ल

जैसे किसी तूफ़ान का ख़दशा भी नहीं था

मज़हर इमाम

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जैसे किसी तूफ़ान का ख़दशा भी नहीं था
क्या लोग थे अंदेशा-ए-फ़र्दा भी नहीं था

वो कैसे मुसाफ़िर थे कि बे-ज़ाद-ए-सफ़र थे
सीने पे कोई बार-ए-तमन्ना भी नहीं था

क्यूँ लोग मज़ारों पे दुआ माँग रहे थे
मुझ पर किसी आसेब का साया भी नहीं था

किस बाग़-ए-तिलिस्मात में गुम हो गईं आँखें
मैं ने तिरी जानिब अभी देखा भी नहीं था

क्यूँ ताज़ा हवा का कोई झोंका नहीं आया
एहसास के दर पर कोई पर्दा भी नहीं था

नश्शा दर-ए-गंदुम का हिरन होने से पहले
जन्नत से निकलना है ये सोचा भी नहीं था

गिरती हुई दीवार को सब देख रहे थे
इस शहर में कुछ और तमाशा भी नहीं था

ना-कर्दा-गुनाही की सज़ा दे मुझे या-रब
जो काम किया मैं ने वो अच्छा भी नहीं था