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जैसे ही चश्म-ए-रज़्ज़ाक़ से गिर गया | शाही शायरी
jaise hi chashm-e-rawaq se gir gaya

ग़ज़ल

जैसे ही चश्म-ए-रज़्ज़ाक़ से गिर गया

अतहर शकील

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जैसे ही चश्म-ए-रज़्ज़ाक़ से गिर गया
जगमगाता दिया ताक़ से गिर गया

एक लग़्ज़िश से दोनों ही रुस्वा हुए
वो नज़र से मैं आफ़ाक़ से गिर गया

शे'र कहने को लिक्खा था मैं ने अभी
एक मज़मून औराक़ से गिर गया

उस की नज़रों से मैं क्या गिरा एक बार
यूँ लगा जैसे आफ़ाक़ से गिर गया

एक बेटा तकब्बुर के आकाश से
बाप के लफ़्ज़ इक आक़ से गिर गया

तीरगी जब न मिट पाई सूखा दिया
टिमटिमाता हुआ ताक़ से गिर गया

तमकनत के सबब इक अमीर-उल-मुलूक
याद रख चश्म-ए-ख़ल्लाक़ से गिर गया