जैसे हम-बज़्म हैं फिर यार-ए-तरह-दार से हम
रात मिलते रहे अपने दर-ओ-दीवार से हम
सरख़ुशी में यूँही दिल-शाद ओ ग़ज़ल-ख़्वाँ गुज़रे
कू-ए-क़ातिल से कभी कूचा-ए-दिलदार से हम
कभी मंज़िल कभी रस्ते ने हमें साथ दिया
हर क़दम उलझे रहे क़ाफ़िला-सालार से हम
हम से बे-बहरा हुई अब जरस-ए-गुल की सदा
वर्ना वाक़िफ़ थे हर इक रंग की झंकार से हम
'फ़ैज़' जब चाहा जो कुछ चाहा सदा माँग लिया
हाथ फैला के दिल-ए-बे-ज़र-ओ-दीनार से हम
ग़ज़ल
जैसे हम-बज़्म हैं फिर यार-ए-तरह-दार से हम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़