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जैसा हूँ वैसा क्यूँ हूँ समझा सकता था मैं | शाही शायरी
jaisa hun waisa kyun hun samjha sakta tha main

ग़ज़ल

जैसा हूँ वैसा क्यूँ हूँ समझा सकता था मैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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जैसा हूँ वैसा क्यूँ हूँ समझा सकता था मैं
तुम ने पूछा तो होता बतला सकता था मैं

आसूदा रहने की ख़्वाहिश मार गई वर्ना
आगे और बहुत आगे तक जा सकता था मैं

छोटी-मोटी एक लहर ही थी मेरे अंदर
एक लहर से क्या तूफ़ान उठा सकता था मैं

कहीं कहीं से कुछ मिसरे एक-आध ग़ज़ल कुछ शेर
इस पूँजी पर कितना शोर मचा सकता था मैं

जैसे सब लिखते रहते हैं ग़ज़लें नज़्में गीत
वैसे लिख लिख कर अम्बार लगा सकता था मैं