EN اردو
जहाँ तक गया कारवान-ए-ख़याल | शाही शायरी
jahan tak gaya karwan-e-KHayal

ग़ज़ल

जहाँ तक गया कारवान-ए-ख़याल

अंजुम रूमानी

;

जहाँ तक गया कारवान-ए-ख़याल
न था कुछ ब-जुज़ हसरत-ए-पाएमाल

मुझे तेरा तुझ को है मेरा ख़याल
मगर ज़िंदगी फिर भी है ख़स्ता-हाल

जहाँ तक है दैर ओ हरम का सवाल
रहें चुप तो मुश्किल कहें तो मुहाल

तिरी काएनात एक हैरत-कदा
शनासा मगर अजनबी ख़द्द-ओ-ख़ाल

मिरी काएनात एक ज़ख़्म-ए-कुहन
मुक़द्दर में जिस के नहीं इंदिमाल

नई ज़िंदगी के नए मक्र ओ फ़न
नए आदमी की नई चाल-ढाल

हुए रुख़्सत अंजुम सहर के क़रीब
न देखा गया शायद अपना मआल