जहाँ तक गया कारवान-ए-ख़याल
न था कुछ ब-जुज़ हसरत-ए-पाएमाल
मुझे तेरा तुझ को है मेरा ख़याल
मगर ज़िंदगी फिर भी है ख़स्ता-हाल
जहाँ तक है दैर ओ हरम का सवाल
रहें चुप तो मुश्किल कहें तो मुहाल
तिरी काएनात एक हैरत-कदा
शनासा मगर अजनबी ख़द्द-ओ-ख़ाल
मिरी काएनात एक ज़ख़्म-ए-कुहन
मुक़द्दर में जिस के नहीं इंदिमाल
नई ज़िंदगी के नए मक्र ओ फ़न
नए आदमी की नई चाल-ढाल
हुए रुख़्सत अंजुम सहर के क़रीब
न देखा गया शायद अपना मआल
ग़ज़ल
जहाँ तक गया कारवान-ए-ख़याल
अंजुम रूमानी