EN اردو
जहाँ न दिल को सुकून है न है क़रार मुझे | शाही शायरी
jahan na dil ko sukun hai na hai qarar mujhe

ग़ज़ल

जहाँ न दिल को सुकून है न है क़रार मुझे

आजिज़ मातवी

;

जहाँ न दिल को सुकून है न है क़रार मुझे
ये किस मक़ाम पे ले आई याद-ए-यार मुझे

ये बात सच है मैं बर्ग-ए-ख़िज़ाँ-रसीदा हूँ
मगर सलाम किया करती है बहार मुझे

सितम ये है वो कभी भूल कर नहीं आया
तमाम उम्र रहा जिस का इंतिज़ार मुझे

बस अपने-आप सँवरना भी कोई बात हुई
तू अपनी ज़ुल्फ़ की सूरत कभी सँवार मुझे

अबस है दोस्तो तशरीह-ए-वादा-ए-फ़र्दा
अब इस का ज़िक्र भी होता है नागवार मुझे

तमाम उम्र झुलसता रहा मैं सहरा में
कहीं शजर नज़र आया न साया-दार मुझे

बहार-ए-नौ ये हक़ीक़त है या फ़रेब-ए-निगाह
लिबास-ए-गुल नज़र आता है तार तार मुझे

गुनाह जिस से न सरज़द हुआ हो ऐ 'आजिज़'
उसी को हक़ है वो कह दे गुनाहगार मुझे