जहाँ में कौन कह सकता है तुम को बेवफ़ा तुम हो
ये थोड़ी वज़्अ-दारी है कि दुश्मन-आश्ना तुम हो
तबाही सामने मौजूद है गर आश्ना तुम हो
ख़ुदा हाफ़िज़ है उस कश्ती का जिस के नाख़ुदा तुम हो
जफ़ा-जू बे-मुरव्वत बेवफ़ा ना-आश्ना तुम हो
मगर इतनी बुराई पर भी कितने ख़ुश-नुमा तुम हो
भरोसा ग़ैर को होगा तुम्हारी आश्नाई का
तुम अपनी ज़िद पे आ जाओ तो किस के आश्ना तुम हो
कोई दिल-शाद होता है कोई नाशाद होता है
किसी के मुद्दई तुम हो किसी का मुद्दआ तुम हो
'ज़हीर' उस का नहीं शिकवा न की गर क़द्र गर्दूं ने
ज़माना जानता है तुम को जैसे ख़ुश-नवा तुम हो

ग़ज़ल
जहाँ में कौन कह सकता है तुम को बेवफ़ा तुम हो
ज़हीर देहलवी