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जहाँ में हम जिसे भी प्यार के क़ाबिल समझते हैं | शाही शायरी
jahan mein hum jise bhi pyar ke qabil samajhte hain

ग़ज़ल

जहाँ में हम जिसे भी प्यार के क़ाबिल समझते हैं

अज़ीज़ वारसी

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जहाँ में हम जिसे भी प्यार के क़ाबिल समझते हैं
हक़ीक़त में उसी को ज़ीस्त का हासिल समझते हैं

मिला करता है दस्त-ए-ग़ैब से मख़्सूस बंदों को
किसी के दर्द को हम काएनात-ए-दिल समझते हैं

जिन्हें शौक़-ए-तलब ने क़ुव्वत-ए-बाज़ू अता की है
तलातुम-ख़ेज़ तुग़्यानी को वो साहिल समझते हैं

सितम ऐसे किए तमसील जिन की मिल नहीं सकती
मगर वो इस जफ़ा को अव्वलीं मंज़िल समझते हैं

मोहब्बत लफ़्ज़ तो सादा सा है लेकिन 'अज़ीज़' इस को
मता-ए-दिल समझते थे मता-ए-दिल समझते हैं