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जहाँ को अभी ताब-ए-उल्फ़त नहीं है | शाही शायरी
jahan ko abhi tab-e-ulfat nahin hai

ग़ज़ल

जहाँ को अभी ताब-ए-उल्फ़त नहीं है

आनंद नारायण मुल्ला

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जहाँ को अभी ताब-ए-उल्फ़त नहीं है
बशर में अभी आदमियत नहीं है

तकल्लुफ़ अगर है हक़ीक़त नहीं है
तसन्नो ज़बान-ए-मोहब्बत नहीं है

ज़रूरी हो जिस के लिए एक दोज़ख़
वो मेरे तसव्वुर की जन्नत नहीं है

मिरे दिल में इक तो है तुझ से हसीं-तर
मुझे अब तिरी कुछ ज़रूरत नहीं है

मोहब्बत यक़ीनन खिलाफ-ए-ख़िरद है
मगर अक़्ल ही इक हक़ीक़त नहीं है

उसे एक बेताबी-ए-शौक़ समझो
तग़ाफ़ुल का शिकवा शिकायत नहीं है

मुझे कर के चुप कोई कहता है हँस कर
उन्हें बात करने की आदत नहीं है

कभी हो सकेगा न 'मुल्ला' का ईमाँ
जिस ईमाँ में दिल की नबुव्वत नहीं है