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जफ़ा पे शुक्र का उम्मीद-वार क्यूँ आया | शाही शायरी
jafa pe shukr ka ummid-war kyun aaya

ग़ज़ल

जफ़ा पे शुक्र का उम्मीद-वार क्यूँ आया

शौक़ क़िदवाई

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जफ़ा पे शुक्र का उम्मीद-वार क्यूँ आया
मिरी वफ़ा का उसे ए'तिबार क्यूँ आया

ये दिल की बात ही मुँह से अदा नहीं होती
मैं क्या कहूँ कि यहाँ बार बार क्यूँ आया

ख़याल-ए-पुर्सिश-ए-महशर से वो हुआ मग़्मूम
नज़र के सामने मेरा मज़ार क्यूँ आया

कहाँ वो हाथ मैं पाऊँ हसीन लड़कों के
सड़ी नहीं तो सू-ए-कोहसार क्यूँ आया

तड़प थी मर के भी मय्यत पे शायद आया वो
नहीं ये बात तो दिल को क़रार क्यूँ आया

हुआ मैं ख़ाक तो वो लड़ रहा है आँधी से
कि तेरे साथ मिरे घर ग़ुबार क्यूँ आया

वो इंतिज़ार की लज़्ज़त भी ले गया ऐ 'शौक़'
हवा के घोड़े पे ज़ालिम सवार क्यूँ आया