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जफ़ा में नाम निकालो न आसमाँ की तरह | शाही शायरी
jafa mein nam nikalo na aasman ki tarah

ग़ज़ल

जफ़ा में नाम निकालो न आसमाँ की तरह

रियाज़ ख़ैराबादी

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जफ़ा में नाम निकालो न आसमाँ की तरह
खुलेंगी लाख ज़बानें मिरी ज़बाँ की तरह

फ़रेब-ए-असर को कोई दे मिरी फ़ुग़ाँ की तरह
तराशती है ये फ़िक़रे तिरी ज़बाँ की तरह

ये किस की साया-ए-दीवार ने मुझे पीसा
ये कौन टूट पड़ा मुझ पे आसमाँ की तरह

ज़रूर ढाएँगे आफ़त कुछ उन के नावक-ए-नाज़
चढ़े हैं गोश-ए-अब्रू कड़ी कमाँ की तरह

रह-ए-हयात कटी इस तरह कि उठ उठ कर
मैं बैठ बैठ गया गर्द-ए-कारवाँ की तरह

ब-रंग-ए-ताइर-ए-बू मैं हूँ ग़ुंचा-ओ-गुल हैं
मिरे क़फ़स की तरह मेरे आशियाँ की तरह

न तेरे दर से हटे तेरी ठोकरें खा कर
वहीं जमे रहे हम संग-ए-आस्ताँ की तरह

हमें है घर से तअल्लुक़ अब इस क़दर बाक़ी
कभी जो आए तो दो दिन को मेहमान की तरह

गया चमन को तो झुक कर बहुत मिलीं शाख़ें
लिया गुलों ने मुझे मेरे आशियाँ की तरह

बला है ये कोई थोड़ा न जाने पैकाँ को
लहु पिएगा हमारा ग़म-ए-निहाँ की तरह

ज़रा सी जान को लाखों तरह के खटके हैं
चमन न लाए कहीं रंग आसमाँ की तरह

मैं आऊँ आप के घर क्या मुझे डराते हैं
अदू के नक़्श-ए-क़दम चश्म-ए-क़दम चश्म-ए-पासबाँ की तरह

शरीक-ए-दर्द तो क्या बाइस-ए-अज़िय्य्त हैं
वो लोग जिन से तअल्लुक़ था जिस्म ओ जाँ की तरह

तुम्हें भी देगी मज़ा कुछ मिरी मुसीबत-ए-इश्क़
कहीं कहीं से सुनो उस को दास्ताँ की तरह

रहे कभी न इलाही मिरा क़फ़स ख़ाली
कि मुझ को चैन मिला उस में आशियाँ की तरह

मुझे शबाब ने मारा बला-ए-जाँ हो कर
बहार आई मिरे बाग़ में ख़िज़ाँ की तरह

क़फ़स में लूट लिए कौन से मज़े मैं ने
दिखाए आँख ने सय्याद बाग़बाँ की तरह

किसी को चैन न क़ातिल की शोख़ियों से मिला
मरे हुए भी तड़पते हैं नीम-जाँ की तरह

तिरी उठान तरक़्क़ी करे क़यामत की
तिरा शबाब बढ़े उम्र-ए-जावेदाँ की तरह

जौ अपने घर कोई आ ले तो कौन दे तकलीफ़
सितारे कौन वो बैठे हैं मेहमाँ की तरह

'रियाज़' मौत है इस शर्त से हमें मंज़ूर
ज़मीं सताए न मरने पर आसमाँ की तरह