जफ़ा-ए-अहद का इल्ज़ाम उलट भी सकता हूँ
उसे यक़ीन न था मैं पलट भी सकता हूँ
मैं अपने इश्क़ में शाहीं मिज़ाज रखता हूँ
पलट तो जाता हूँ लेकिन झपट भी सकता हूँ
जुनूँ में ज़ुल्म की गर्दन उतार लेता हूँ
तो इक निगाह-ए-मोहब्बत में कट भी सकता हूँ
अदू-ए-शहर मैं बारूद हूँ मोहब्बत का
हदों से बात बढ़ेगी तो फट भी सकता हूँ
बिसात-ए-अर्ज़ पे चाहूँ तो फैल जाऊँ मैं
हो रम्ज़-ए-यार तो दिल में सिमट भी सकता हूँ
ग़ज़ल
जफ़ा-ए-अहद का इल्ज़ाम उलट भी सकता हूँ
नईम जर्रार अहमद