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जब उस को देखते रहने से थकने लगता हूँ | शाही शायरी
jab usko dekhte rahne se thakne lagta hun

ग़ज़ल

जब उस को देखते रहने से थकने लगता हूँ

फ़रहत एहसास

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जब उस को देखते रहने से थकने लगता हूँ
तो अपने ख़्वाब की पलकें झपकने लगता हूँ

जिसे भी प्यास बुझानी हो मेरे पास रहे
कभी भी अपने लबों से छलकने लगता हूँ

हवा-ए-हिज्र दिखाती है सब्ज़ बाग़-ए-विसाल
तो बाग़-ए-वहम में अपने महकने लगता हूँ

छिड़कनी पड़ती है ख़ुद पर किसी बदन की आग
मैं अपनी आग में जब भी दहकने लगता हूँ

मैं ख़ुद को चख नहीं पाता कि तोड़ लेती है
मुझे हवा-ए-ख़िज़ाँ जब भी पकने लगता हूँ

बदन की कान से हीरे निकलने लगते हैं
मैं अपनी रात में अक्सर चमकने लगता हूँ

वो एक मंज़र-ए-नापैद है कि जिस के लिए
मैं आँख होने की ख़ातिर फड़कने लगता हूँ

परिंदे बोलने लगते हैं मुझ में रात गए
तो शाख़-ए-शेर पे मैं भी चहकने लगता हूँ

जो कार-नामा कभी कोई मुझ से हो जाए
तो अपनी पीठ मैं ख़ुद ही थपकने लगता हूँ

सुनाने लगता है अशआ'र-ए-इश्क़ जब 'एहसास'
मैं उस के सामने दिल सा धड़कने लगता हूँ