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जब तिरी चाह में दामान-ए-जुनूँ चाक हुआ | शाही शायरी
jab teri chah mein daman-e-junun chaak hua

ग़ज़ल

जब तिरी चाह में दामान-ए-जुनूँ चाक हुआ

रफ़ीक़ ख़याल

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जब तिरी चाह में दामान-ए-जुनूँ चाक हुआ
फिर कहीं जा के मुझे इश्क़ का इदराक हुआ

यूँ तो इक जैसे नज़र आते हैं चेहरे लेकिन
कोई ख़ुश-ख़्वाब हुआ और कोई ग़मनाक हुआ

वरक़-जाँ पे लिक्खे मैं ने सहीफ़े दिल के
इस हवाले से भी मैं शोला-ए-बेबाक हुआ

कोई मर के भी ज़माने में अमर होता है
और कोई जीते हुए भी जसद-ए-ख़ाक हुआ

जिस की लहरों से जनम लेते हैं संदल से बदन
उस समुंदर का ब-सद-शौक़ मैं पैराक हुआ

ऐ 'ख़याल' आईना-ए-हुस्न-ए-मुजस्सम की क़सम
ख़ाक पर बैठ के मैं साहब-ए-अफ़्लाक हुआ