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जब तक जुनूँ जुनूँ है ग़म-ए-आगही भी है | शाही शायरी
jab tak junun junun hai gham-e-agahi bhi hai

ग़ज़ल

जब तक जुनूँ जुनूँ है ग़म-ए-आगही भी है

अहमद ज़फ़र

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जब तक जुनूँ जुनूँ है ग़म-ए-आगही भी है
यानी असीर-ए-नग़्मा मिरी बे-ख़ुदी भी है

खिलते हैं फूल जिन के तबस्सुम के वास्ते
शबनम में उन के अक्स की आज़ुर्दगी भी है

कुछ साअतों का रंग मिरे साथ साथ है
वो निकहत-ए-बहार मगर अजनबी भी है

ज़िंदा हूँ मैं कि आग जहन्नम की बन सकूँ
फ़िरदौस-ए-आरज़ू मिरे दिल की कली भी है

इस याद का भँवर मेरे एहसास में रहा
इज़हार-ए-मौज मौज की ना-गुफ़्तनी भी है

पलकों पे चाँदनी के तकल्लुम की आँच थी
होंटों पे गुफ़्तुगू के लिए तिश्नगी भी है

क्यूँ तीरगी से इस क़दर मानूस हूँ 'ज़फ़र'
इक शम-ए-राह-गुज़र कि सहर तक जली भी है