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जब तबीअ'त सुकूँ से घबराई | शाही शायरी
jab tabiat sukun se ghabrai

ग़ज़ल

जब तबीअ'त सुकूँ से घबराई

प्रेम शंकर गोयला फ़रहत

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जब तबीअ'त सुकूँ से घबराई
ले चला ज़ौक़-ए-आबला-पाई

वो हुए माइल-ए-मसीहाई
मौत फिर ज़िंदगी से शर्माई

ज़ुल्फ़ बिखरी कि बस घटा छाई
अहल-ए-तक़्वा पे इक बला आई

ताइर-ए-आरज़ू ने पर तोले
सेहन-ए-दिल में चली है पुर्वाई

मुड़ के तूफ़ाँ को बारहा देखा
नज़्द-ए-साहिल जो मौज ले आई

कश्मकश वो जुनून-ओ-होश में है
बन गया हुस्न भी तमाशाई

रूह-ओ-तन में अज़ल से निस्बत है
फिर भी हैं तिश्ना-ए-शनासाई

शैख़ को ख़ुल्द-ओ-हूर का सौदा
हाए ये लज़्ज़तों की गीराई

मय-कदा का ये मो'जिज़ा है अजीब
कुफ़्र-ओ-दीं में भी है शनासाई

शग़्ल-ए-मय फ़र्त-ए-ग़म में क्या करते
इस में थी दुख़्त-ए-रज़ की रुस्वाई

दिन को मस्जिद तो शब को मय-ख़ाना
तुझ सा 'फ़रहत' है कौन हरजाई