जब से दिलबर ने आँख फेरा है
मुझ को दौरान-ए-सर ने घेरा है
कूचा-ए-ज़ुल्फ़ नित अंधेरा है
वहाँ सियह-बख़्त दिल का डेरा है
वज्द में हैं दिवाने अब्र को देख
लैला-ए-फ़स्ल-ए-गुल का डेरा है
यक्का आज़ाद है दो आलम से
जो कि बे-दाम तेरा चीरा है
गाल पर है किसी के काट का नक़्श
मुँह पे ज़ुल्फ़ें तभी बिखेरा है
नित बके है कि बावला 'उज़लत'
ये न बोला कभू कि मेरा है
ग़ज़ल
जब से दिलबर ने आँख फेरा है
वली उज़लत