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जब से दिलबर ने आँख फेरा है | शाही शायरी
jab se dilbar ne aankh phera hai

ग़ज़ल

जब से दिलबर ने आँख फेरा है

वली उज़लत

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जब से दिलबर ने आँख फेरा है
मुझ को दौरान-ए-सर ने घेरा है

कूचा-ए-ज़ुल्फ़ नित अंधेरा है
वहाँ सियह-बख़्त दिल का डेरा है

वज्द में हैं दिवाने अब्र को देख
लैला-ए-फ़स्ल-ए-गुल का डेरा है

यक्का आज़ाद है दो आलम से
जो कि बे-दाम तेरा चीरा है

गाल पर है किसी के काट का नक़्श
मुँह पे ज़ुल्फ़ें तभी बिखेरा है

नित बके है कि बावला 'उज़लत'
ये न बोला कभू कि मेरा है