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जब सफ़र से लौट कर आने की तय्यारी हुई | शाही शायरी
jab safar se lauT kar aane ki tayyari hui

ग़ज़ल

जब सफ़र से लौट कर आने की तय्यारी हुई

आफ़ताब हुसैन

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जब सफ़र से लौट कर आने की तय्यारी हुई
बे-तअल्लुक़ थी जो शय वो भी बहुत प्यारी हुई

चार साँसें थीं मगर सीने को बोझल कर गईं
दो क़दम की ये मसाफ़त किस क़दर भारी हुई

एक मंज़र है कि आँखों से सरकता ही नहीं
एक साअत है कि सारी उम्र पर तारी हुई

इस तरह चालें बदलता हूँ बिसात-ए-दहर पर
जीत लूँगा जिस तरह ये ज़िंदगी हारी हुई

किन तिलिस्मी रास्तों में उम्र काटी 'आफ़्ताब'
जिस क़दर आसाँ लगा उतनी ही दुश्वारी हुई