जब न जीते-जी मिरे काम आएगी
क्या ये दुनिया आक़िबत बख़्शाएगी
जब मिले दो दिल मुख़िल फिर कौन है
बैठ जाओ ख़ुद हया उठ जाएगी
गर यही है इस गुलिस्ताँ की हवा
शाख़-ए-गुल इक रोज़ झोंका खाएगी
दाग़-ए-सौदा एक दिन देगा बहार
फ़स्ल इस गुल की शगूफ़ा लाएगी
कुछ तो होगा हिज्र में अंजाम-ए-कार
बे-क़रारी कुछ न कुछ ठहराएगी
संदली रंगों से माना दिल मिला
दर्द सर की किस के माथे जाएगी
ख़ाकसारों से जो रक्खेगा ग़ुबार
ओ फ़लक बदली तिरी हो जाएगी
जब करेगा गर्मियाँ वो शोला-रू
शम-ए-महफ़िल देख कर जल जाएगी
जाँ निकल जाएगी तन से ऐ 'नसीम'
गुल को बू-ए-गुल हवा बतलाएगी
ग़ज़ल
जब न जीते-जी मिरे काम आएगी
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी