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जब मुख़ालिफ़ मिरा राज़-दाँ हो गया | शाही शायरी
jab muKhaalif mera raaz-dan ho gaya

ग़ज़ल

जब मुख़ालिफ़ मिरा राज़-दाँ हो गया

अख़तर शाहजहाँपुरी

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जब मुख़ालिफ़ मिरा राज़-दाँ हो गया
राज़-ए-सर-बस्ता सब पर अयाँ हो गया

मुझ को एहसास-ए-शर्मिंदगी है बहुत
क़िस्सा-ए-दर्द कैसे बयाँ हो गया

कितनी हसरत से तकती रही हर ख़ुशी
और दामन मिरा धज्जियाँ हो गया

मसअला बन गई फ़िक्र तफ़्हीम का
लफ़्ज़ का हुस्न भी राएगाँ हो गया

लोग ये सोच के ही परेशान हैं
मैं ज़मीं था तो क्यूँ आसमाँ हो गया

शिकवा-संजान-ए-तन्हाई हैं सब के सब
मेरा ग़म भी ग़म-ए-दो-जहाँ हो गया

पेड़ क्या मेरे आँगन का 'अख़्तर' गिरा
लोग समझे कि मैं बे-अमाँ हो गया