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जब कोई शाम-ए-हसीं नज़र-ए-ख़राबात हुई | शाही शायरी
jab koi sham-e-hasin nazr-e-KHarabaat hui

ग़ज़ल

जब कोई शाम-ए-हसीं नज़र-ए-ख़राबात हुई

मख़मूर सईदी

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जब कोई शाम-ए-हसीं नज़र-ए-ख़राबात हुई
अक्सर ऐसे में तिरे ग़म से मुलाक़ात हुई

आप-अपने को न पहचान सके हम ता-देर
उन से बिछड़े तो अजब सूरत-ए-हालात हुई

हुस्न से निभ न न सकी वज़-ए-करम आख़िर तक
अव्वल अव्वल तो मोहब्बत की मुदारात हुई

रोज़ मय पी है तुम्हें याद किया है लेकिन
आज तुम याद न आए ये नई बात हुई

उस ने आवाज़ में आवाज़ मिला दी थी कभी
आज तक ख़त्म न मौसीक़ी-ए-जज़्बात हुई

दिल पे इक ग़म की घटा छाई हुई थी कब से
आज उन से जो मिले टूट के बरसात हुई

किस की परछाईं पड़ी कौन इधर से गुज़रा
इतनी रंगीं जो गुज़रगाह-ए-ख़यालात हुई

उन से उम्मीद-ए-मुलाक़ात के बाद ऐ 'मख़मूर'
मुद्दतों तक न ख़ुद अपने से मुलाक़ात हुई