जब कोई भी ख़ाक़ान सर-ए-बाम न होगा
फिर अहल-ए-ज़मीं पर कोई इल्ज़ाम न होगा
कल वो हमें पहचान न पाए सर-ए-राहे
शायद उन्हें अब हम से कोई काम न होगा
फिर कौन समझ पाएगा असरार-ए-हक़ीक़त
जब फ़ैसला कोई भी सर-ए-आम न होगा
ये अहद-ए-रवाँ ख़ाक-निशाँ ध्यान में रक्खो
फिर ढूँडोगे किस को जो कोई नाम न होगा
बनने को है इक रोज़ परिंदों का मुक़द्दर
उतरेंगे तो हम-रंग-ए-ज़मीं दाम न होगा
महफ़िल में अगर ज़िक्र हो अरबाब-ए-वफ़ा का
ऐसा नहीं 'राहत' कि तिरा नाम न होगा
ग़ज़ल
जब कोई भी ख़ाक़ान सर-ए-बाम न होगा
अमीन राहत चुग़ताई