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जब कोई आलम-ए-शुहूद न था | शाही शायरी
jab koi aalam-e-shuhud na tha

ग़ज़ल

जब कोई आलम-ए-शुहूद न था

सुहैल अख़्तर

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जब कोई आलम-ए-शुहूद न था
मैं भी इक ख़्वाब था वजूद न था

अपनी तख़्लीक़ से हुआ महदूद
वर्ना मैं जानता हुदूद न था

मुझ में भी लौ थी आग थी पहले
मेरा सरमाया सिर्फ़ दूद न था

जाने उस ने मुझे ख़रीदा क्यूँ
मैं ज़ियाँ ही ज़ियाँ था सूद न था

तर्ज़-ए-इज़हार ने किया मख़्सूस
ख़ास अशआर का वरूद न था

इक असीरी यहाँ थी शर्त-ए-शनाख़्त
और मैं बंदा-ए-क़ुयूद न था

तुझ से रंगीनी-ए-जहाँ है 'सुहैल'
पहले ये रंग-ए-हसत-ओ-बूद न था