जब कभी मेरे क़दम सू-ए-चमन आए हैं
अपना दुख दर्द लिए सर्व ओ समन आए हैं
पाँव से लग के खड़ी है ये ग़रीब-उल-वतनी
उस को समझाओ कि हम अपने वतन आए हैं
झाड़ लो गर्द-ए-मुसर्रत को बिठा लो दिल में
भूले-भटके हुए कुछ रंज ओ मेहन आए हैं
जब लहू रोए हैं बरसों तो खुली ज़ुल्फ़-ए-ख़याल
यूँ न इस नाग को लहराने के फ़न आए हैं
कुछ अजब रंग है इस आन तबीअत का 'नईम'
कुछ अजब तर्ज़ के इस वक़्त सुख़न आए हैं
ग़ज़ल
जब कभी मेरे क़दम सू-ए-चमन आए हैं
हसन नईम