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जब कभी मद्द-ए-मुक़ाबिल वो रुख़-ए-ज़ेबा हुआ | शाही शायरी
jab kabhi madd-e-muqabil wo ruKH-e-zeba hua

ग़ज़ल

जब कभी मद्द-ए-मुक़ाबिल वो रुख़-ए-ज़ेबा हुआ

आजिज़ मातवी

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जब कभी मद्द-ए-मुक़ाबिल वो रुख़-ए-ज़ेबा हुआ
आईना भी रह गया हैरत से मुँह तकता हुआ

फ़स्ल-ए-गुल में है शिकस्त-ओ-रेख़्त का आईना-दार
एक इक तिनका नशेमन का मिरे बिखरा हुआ

महव-ए-हैरत हूँ ख़राश-ए-दस्त-ए-ग़म को देख कर
ज़ख़्म चेहरे पर हैं या है आईना टूटा हुआ

अब्र-ए-ग़म बरसे तो अश्कों की रवानी देखना
साहिल-ए-मिज़्गाँ पे है तूफ़ाँ अभी ठहरा हुआ

इख़्तिलाफ़-ए-ज़ेहन-ए-फ़ितरत ज़िंदगानी का सराब
इश्तिराक-ए-बाहमी ही मौजिब-ए-दरिया हुआ

जब मैं उन से कह चुका अपनी हदीस-ए-रंज-ओ-ग़म
उन की शोख़ी देखिए कहने लगे पर क्या हुआ

मैं समझ पाया न 'आजिज़' ये तिलिस्म-ए-राहबर
हर क़दम पर मंज़िल-ए-मक़्सूद का धोका हुआ