जब कभी किसी गुल पर इक ज़रा निखार आया
कम-निगाह ये समझे मौसम-ए-बहार आया
हुस्न ओ इश्क़ दोनों थे बे-कराँ ओ बे-पायाँ
दिल वहाँ भी कुछ लम्हे जाने कब गुज़ार आया
उस उफ़ुक़ को क्या कहिए नूर भी धुँदलका भी
बार-हा किरन फूटी बार-हा ग़ुबार आया
हम ने ग़म के मारों की महफ़िलें भी देखीं हैं
एक ग़म-गुसार उठा एक ग़म-गुसार आया
आरज़ू-ए-साहिल से हम किनारा क्या करते
जिस तरफ़ क़दम उठे बहर-ए-बे-कनार आया
यूँ तो सैकड़ों ग़म थे पर ग़म-ए-जहाँ 'जज़्बी'
बअ'द एक मुद्दत के दिल को साज़गार आया
ग़ज़ल
जब कभी किसी गुल पर इक ज़रा निखार आया
मुईन अहसन जज़्बी