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जब कभी किसी गुल पर इक ज़रा निखार आया | शाही शायरी
jab kabhi kisi gul par ek zara nikhaar aaya

ग़ज़ल

जब कभी किसी गुल पर इक ज़रा निखार आया

मुईन अहसन जज़्बी

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जब कभी किसी गुल पर इक ज़रा निखार आया
कम-निगाह ये समझे मौसम-ए-बहार आया

हुस्न ओ इश्क़ दोनों थे बे-कराँ ओ बे-पायाँ
दिल वहाँ भी कुछ लम्हे जाने कब गुज़ार आया

उस उफ़ुक़ को क्या कहिए नूर भी धुँदलका भी
बार-हा किरन फूटी बार-हा ग़ुबार आया

हम ने ग़म के मारों की महफ़िलें भी देखीं हैं
एक ग़म-गुसार उठा एक ग़म-गुसार आया

आरज़ू-ए-साहिल से हम किनारा क्या करते
जिस तरफ़ क़दम उठे बहर-ए-बे-कनार आया

यूँ तो सैकड़ों ग़म थे पर ग़म-ए-जहाँ 'जज़्बी'
बअ'द एक मुद्दत के दिल को साज़गार आया