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जब हमारी ज़िंदगी का ख़त्म अफ़्साना हुआ | शाही शायरी
jab hamari zindagi ka KHatm afsana hua

ग़ज़ल

जब हमारी ज़िंदगी का ख़त्म अफ़्साना हुआ

जमीला ख़ातून तस्नीम

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जब हमारी ज़िंदगी का ख़त्म अफ़्साना हुआ
उस घड़ी सद-हैफ़ उन का ख़ैर से आना हुआ

आप तो हँसते रहे हम रो के रुस्वा हो गए
शम्अ' तो चलती रही पामाल परवाना हुआ

मेरी बर्बादी के चर्चे सुन के किस किस नाज़ से
पूछते हैं मुस्कुरा कर कौन दीवाना हुआ

दहर में अब मुस्कुराने की हमें फ़ुर्सत नहीं
दिल हुजूम-ए-ग़म बना ग़म आह-ए-अफ़्साना हुआ

तू न होता तो ज़मीन-ओ-आसमाँ कुछ भी न था
तेरे क़दमों की बदौलत मेरा काशाना हुआ

ऐ करम-फ़रमा तुझे हो इल्म उस का या न हो
कौन तुझ में खो के और फिर ख़ुद से बेगाना हुआ

हम ही इक तन्हा नहीं 'तसनीम' मस्ताने हुए
उन की नज़रें क्या उठीं हर रिंद मस्ताना हुआ