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जब फ़राज़-ए-बाम पर वो जल्वा-गर होता नहीं | शाही शायरी
jab faraaz-e-baam par wo jalwa-gar hota nahin

ग़ज़ल

जब फ़राज़-ए-बाम पर वो जल्वा-गर होता नहीं

राज कुमार सूरी नदीम

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जब फ़राज़-ए-बाम पर वो जल्वा-गर होता नहीं
कोई आलम हो नज़र में मो'तबर होता नहीं

रफ़्ता रफ़्ता हो रहा है वो सितमगर मेहरबाँ
कौन कहता है मोहब्बत में असर होता नहीं

बे-वफ़ाई ने किया है क़िस्सा-ए-ग़म को तवील
अब किसी सूरत ये क़िस्सा मुख़्तसर होता नहीं

कब निगाहों में नहीं होता तिरी फ़ुर्क़त का ग़म
कौन सा आलम है जब दर्द-ए-जिगर होता नहीं

शिद्दत-ए-ग़म में कमी होती नहीं रोने से कुछ
लश्कर-ए-ग़म आँसुओं से मुंतशिर होता नहीं

अब भी नज़रें हैं फ़राज़ तूर पर पैहम मगर
हाए वो जल्वा कि जो बार-ए-दिगर होता नहीं

राहबर की साज़िशों ने वो दिए हैं ग़म 'नदीम'
अब किसी सूरत यक़ीन-ए-राहबर होता नहीं