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जब दीदा-ए-बीना का हवाला नहीं मिलता | शाही शायरी
jab dida-e-bina ka hawala nahin milta

ग़ज़ल

जब दीदा-ए-बीना का हवाला नहीं मिलता

मशकूर हुसैन याद

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जब दीदा-ए-बीना का हवाला नहीं मिलता
फिर कोई भी दुनिया का हवाला नहीं मिलता

वो आलम-ए-बाला तो तिरे दिल में मकीं है
जिस आलम-ए-बाला का हवाला नहीं मिलता

आला में तो अदना के हवाले ही हवाले
अदना ही में आला का हवाला नहीं मिलता

जिस जान-ए-तमन्ना के हवाले है मिरी जाँ
उस जान-ए-तमन्ना का हवाला नहीं मिलता

ये रूह सवालात है या कोई मुनाजात
क्या मिलता है बस क्या का हवाला नहीं मिलता

हम आज हैं और आज तू है कल से भी आगे
अच्छा है जो फ़र्दा का हवाला नहीं मिलता

पैदा है तो पिन्हाँ के हवालों से भरा है
पिन्हाँ से तो पैदा का हवाला नहीं मिलता

तू अपने हवाले की हवा खा के ही ख़ुश रह
हर आन हवाला का हवाला नहीं मिलता

बेहतर है कि अब ख़ुद से जुदा हो के भी देखें
दरिया में तो दरिया का हवाला नहीं मिलता

'मश्कूर' मिरी जान चले आए हो तन्हा
तन्हा को तो तन्हा का हवाला नहीं मिलता