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जब भी तेरी यादों का सिलसिला सा चलता है | शाही शायरी
jab bhi teri yaadon ka silsila sa chalta hai

ग़ज़ल

जब भी तेरी यादों का सिलसिला सा चलता है

रसा चुग़ताई

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जब भी तेरी यादों का सिलसिला सा चलता है
इक चराग़ बुझता है इक चराग़ जलता है

शर्त-ए-ग़म-गुसारी है वर्ना यूँ तो साया भी
दूर दूर रहता है साथ साथ चलता है

सोचता हूँ आख़िर क्यूँ रौशनी नहीं होती
दाग़ भी उभरते हैं चाँद भी निकलता है

कैसे कैसे हंगामे उठ के रह गए दिल में
कुछ पता मगर उन का आँसुओं से चलता है

वो सुरूद-ए-कैफ़-आगीं सोज़-ए-ग़म जिसे कहिए
ज़िंदगी के नग़्मों में ढलते ढलते ढलता है