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जब भी शम-ए-तरब जलाई है | शाही शायरी
jab bhi sham-e-tarab jalai hai

ग़ज़ल

जब भी शम-ए-तरब जलाई है

फ़रीद जावेद

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जब भी शम-ए-तरब जलाई है
आँच महरूमियों की आई है

रास्ते इतने बे-कराँ तो न थे
जुस्तुजू कितनी दूर लाई है

ज़हमत-ए-जुस्तुजू से क्या होगा
बू-ए-गुल किस के हाथ आई है

कितनी रंगीनियों में तेरी याद
किस क़दर सादगी से आई है

कह के जान-ए-ग़ज़ल तुझे हम ने
अपनी कम-माइगी छुपाई है

जब भी 'जावेद' छेड़ दी है ग़ज़ल
बात वारफ़्तगी तक आई है