जब भी घर की छत पर जाएँ नाज़ दिखाने आ जाते हैं
कैसे कैसे लोग हमारे जी को जलाने आ जाते हैं
दिन भर जो सूरज के डर से गलियों में छुप रहते हैं
शाम आते ही आँखों में वो रंग पुराने आ जाते हैं
जिन लोगों ने उन की तलब में सहराओं की धूल उड़ाई
अब ये हसीं उन की क़ब्रों पर फूल चढ़ाने आ जाते हैं
कौन सा वो जादू है जिस से ग़म की अँधेरी सर्द गुफा में
लाख निसाई साँस दिलों के रोग मिटाने आ जाते हैं
ज़े के रेशमी रुमालों को किस किस की नज़रों से छुपाएँ
कैसे हैं वो लोग जिन्हें ये राज़ छुपाने आ जाते हैं
हम भी 'मुनीर' अब दुनिया-दारी कर के वक़्त गुज़ारेंगे
होते होते जीने के भी लाख बहाने आ जाते हैं

ग़ज़ल
जब भी घर की छत पर जाएँ नाज़ दिखाने आ जाते हैं
मुनीर नियाज़ी