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जब आसमान ज़मीं पर उतरने लगता है | शाही शायरी
jab aasman zamin par utarne lagta hai

ग़ज़ल

जब आसमान ज़मीं पर उतरने लगता है

सलीम शुजाअ अंसारी

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जब आसमान ज़मीं पर उतरने लगता है
तो ज़िंदगी का तसव्वुर बिखरने लगता है

कुरेद लेता हूँ तेरे ख़याल से अक्सर
तिरी वफ़ा का अगर ज़ख़्म भरने लगता है

जिसे फ़रेब मिला हो वफ़ाओं के बदले
वो शख़्स अपने ही साए से डरने लगता है

मैं जब सिमटता हूँ हालात की पनाहों में
मिरा वुजूद-ए-शिकस्ता बिखरने लगता है

ज़माना क्यूँ न मिरी राह की रुकावट हो
मिरा जुनूँ भी तो हद से गुज़रने लगता है

उड़ान भरता हूँ जब भी ख़लाओं से आगे
न जाने कौन मिरे पर कतरने लगता है

क़दम बढ़ाता हूँ 'सालिम' हयात की जानिब
तो मेरे पाँव में रस्ता ठहरने लगता है