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जाता है मिरे घर से दिल-दार ख़ुदा-हाफ़िज़ | शाही शायरी
jata hai mere ghar se dil-dar KHuda-hafiz

ग़ज़ल

जाता है मिरे घर से दिल-दार ख़ुदा-हाफ़िज़

मीर मोहम्मदी बेदार

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जाता है मिरे घर से दिल-दार ख़ुदा-हाफ़िज़
है ज़िंदगी अब मुश्किल बे-यार ख़ुदा-हाफ़िज़

वो मस्त-ए-शराब-ए-हुस्न ग़ुस्से से निहायत ही
खींचे होए आता है तलवार ख़ुदा-हाफ़िज़

मुझ पास तबीब आ के कहने लगा ऐ यार
बे-तरह का है इस को आज़ार ख़ुदा-हाफ़िज़

हासिल नहीं दरमाँ का वो है ये मरज़ जस से
जाँ-बर न हुआ कोई बीमार ख़ुदा-हाफ़िज़

बे-तरह कुछ ईधर को वो मस्त-ए-शराब-ए-हुस्न
खींचे हुए आता है तलवार ख़ुदा-हाफ़िज़

ऐ शैख़ तू उस बुत के कूचे में तो जाता है
हो जाए न ये सुब्हा ज़ुन्नार ख़ुदा-हाफ़िज़

डरता हूँ कि दिल हर दम मलता है न हो जावे
उस चश्म-ए-सितम-गर का बीमार ख़ुदा-हाफ़िज़

यूँ मेहर से फ़रमाया उस माह ने वक़्त-ए-सुब्ह
हम जाने हैं अब तेरा 'बेदार' ख़ुदा-हाफ़िज़