जाता है मिरे घर से दिल-दार ख़ुदा-हाफ़िज़
है ज़िंदगी अब मुश्किल बे-यार ख़ुदा-हाफ़िज़
वो मस्त-ए-शराब-ए-हुस्न ग़ुस्से से निहायत ही
खींचे होए आता है तलवार ख़ुदा-हाफ़िज़
मुझ पास तबीब आ के कहने लगा ऐ यार
बे-तरह का है इस को आज़ार ख़ुदा-हाफ़िज़
हासिल नहीं दरमाँ का वो है ये मरज़ जस से
जाँ-बर न हुआ कोई बीमार ख़ुदा-हाफ़िज़
बे-तरह कुछ ईधर को वो मस्त-ए-शराब-ए-हुस्न
खींचे हुए आता है तलवार ख़ुदा-हाफ़िज़
ऐ शैख़ तू उस बुत के कूचे में तो जाता है
हो जाए न ये सुब्हा ज़ुन्नार ख़ुदा-हाफ़िज़
डरता हूँ कि दिल हर दम मलता है न हो जावे
उस चश्म-ए-सितम-गर का बीमार ख़ुदा-हाफ़िज़
यूँ मेहर से फ़रमाया उस माह ने वक़्त-ए-सुब्ह
हम जाने हैं अब तेरा 'बेदार' ख़ुदा-हाफ़िज़
ग़ज़ल
जाता है मिरे घर से दिल-दार ख़ुदा-हाफ़िज़
मीर मोहम्मदी बेदार