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जानें मुश्ताक़ों की लब पर आइयाँ | शाही शायरी
jaanen mushtaqon ki lab par aaiyan

ग़ज़ल

जानें मुश्ताक़ों की लब पर आइयाँ

मीर मोहम्मदी बेदार

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जानें मुश्ताक़ों की लब पर आइयाँ
बलबे ज़ालिम तेरी बे-परवाइयाँ

सुब्ह होने आई रात आख़िर हुई
बस कहाँ तक शोख़ियाँ मचलाइयाँ

बिस भरी नागिन है क्या ही ज़ुल्फ़-ए-यार
जिस को देख अफ़ई ने लहरें खाइयाँ

जेब तो क्या नासेहा दामन की भी
धज्जियाँ कर इश्क़ ने दिखलाइयाँ

सादा-रूई ही ग़ज़ब थी तिस उपर
करते हो हर लहज़ा हुस्न-आराइयाँ

उस समन-अंदाम गुल-रुख़्सार की
जाँ-फ़ज़ा निकहत चुरा कर लाइयाँ

सुन के ये बाद-ए-सबा ने बाग़ में
गठरियाँ ग़ुंचों की फिर खुलवाइयाँ

लेटा छाती पर मिरी लेता था वो
आह किस किस आन से अंगड़ाइयाँ

इस समय को देख कर सौ रश्क से
मौज ने दरिया पे लहरें खाइयाँ

देखते ही उस को शैदा हो गया
क्या हुईं 'बेदार' वो दानाइयाँ