जाँ-सिपारी के भी अरमाँ ज़िंदगी की आस भी
हिफ़्ज़-ए-नामूस-ए-अलम भी नीश-ए-ग़म का पास भी
ख़ाक दर-बर ही सही मैं ख़ाक भी वो ख़ाक है
जिस में मेरे ज़ख़्म-ए-दिल की बू भी है और बास भी
कितने दौर-ए-चर्ख़ उन आँखों ने देखे कुछ न पूछ
मिट चुका है वक़्त की रफ़्तार का एहसास भी
हाए वो इक नश्तर-आगीं नेश्तर-अफ़रोज़ याद
जिस के आगे हेच अपनी बुर्रिश-ए-इंफ़ास भी
हम न थे कुछ ख़ुद ही उस सौदे पे राज़ी वर्ना यूँ
रास आने को ये दुनिया आ ही जाती रास भी
ख़ुद को ऐ दिल यास-ए-कामिल के हवाले यूँ न कर
झाँकती है ज़ेहन के ग़ुर्फ़े से कोई आस भी
कौन उस वादी से उछला ता-सर-ए-अर्श-ए-बरीं
गुम हैं जिस वादी में 'अख़्तर' ख़िज़्र भी इल्यास भी
ग़ज़ल
जाँ-सिपारी के भी अरमाँ ज़िंदगी की आस भी
अख़्तर अंसारी