जान में जान तभी क़ैस के बस आती है
नाक़ा-ए-लैला की जब बंग-ए-जरस आती है
साथ देखूँ हूँ किसी के जो किसी दिलबर को
मैं भी जी रखता हूँ मुझ को भी हवस आती है
क़ैस ओ फ़रहाद के रोने की जब आ जाती है लहर
कोह-ओ-सहरा पे घटा जा के बरस आती है
ज़िंदगी है तो ख़िज़ाँ के भी गुज़र जाएँगे दिन
फ़स्ल-ए-गुल जीतों को फिर अगले बरस आती है
जब क़फ़स में थे तो थी याद-ए-चमन हम को 'हसन'
अब चमन में हैं तो फिर याद-ए-क़फ़स आती है
ग़ज़ल
जान में जान तभी क़ैस के बस आती है
मीर हसन