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जान देते हैं मगर इज़हार हम करते नहीं | शाही शायरी
jaan dete hain magar izhaar hum karte nahin

ग़ज़ल

जान देते हैं मगर इज़हार हम करते नहीं

क़ाज़ी अनसार

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जान देते हैं मगर इज़हार हम करते नहीं
या'नी तशहीर-ए-सलीब-ओ-दार हम करते नहीं

अपने दुश्मन को भी ललकारेंगे आ कर सामने
पुश्त से चूँकि किसी पर वार हम करते नहीं

हो रहा है हर तरफ़ तुर्फ़ा तमाशा रोज़-ओ-शब
उम्र को अब बर-सर-ए-पैकार हम करते नहीं

जब तुम्हारे शहर का हर ज़र्रा ज़र्रा है अज़ीज़
कौन कहता है कि तुम से प्यार हम करते नहीं

है ज़माना कुछ ज़माने की रविश कुछ और है
ख़ुद को रुस्वा यूँ सर-ए-बाज़ार हम करते नहीं

नाम की अपने तमन्ना या सिले की आरज़ू
लोग करते हैं मगर 'अंसार' हम करते नहीं