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जाँ भी ब-जाँ है हिज्र में और दिल फ़िगार भी | शाही शायरी
jaan bhi ba-jaan hai hijr mein aur dil figar bhi

ग़ज़ल

जाँ भी ब-जाँ है हिज्र में और दिल फ़िगार भी

नज़ीर अकबराबादी

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जाँ भी ब-जाँ है हिज्र में और दिल फ़िगार भी
तर है मिज़ा भी अश्क से जेब भी और कनार भी

तुर्फ़ा फ़ुसूँ-सरिश्त है चश्म-ए-करिश्मा-संज-ए-यार
लेती है इक निगाह में सब्र भी और क़रार भी

कूचे में उस के बैठना हुस्न को उस के देखना
हम तो इसी को समझे हैं बाग़ भी और बहार भी

देखिए क्या हो बे-तरह दिल की लगे हैं घात में
ग़मज़ा-ए-पुर-फ़रेब भी इश्वा-ए-सेहर-कार भी

ज़ुल्फ़ को भी है दम-ब-दम अज़्म-ए-कमंद-ए-अफ़गनी
दाम लिए है मुस्तइद तुर्रा-ए-ताबदार भी

बैठे बुतों की बज़्म में जिन की है क़द्र जब वो लोग
अपने फ़रेब-ओ-फ़न से वाँ था ये ख़राब-ओ-ख़्वार भी

गिनने लगे वो अपने जब चाहने वालों को 'नज़ीर'
उठ के यकायक उस घड़ी हम ने कहा ''हैं यार भी''