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इतने तो हम-ख़याल दिल-ए-मुब्तला हैं हम | शाही शायरी
itne to ham-KHayal dil-e-mubtala hain hum

ग़ज़ल

इतने तो हम-ख़याल दिल-ए-मुब्तला हैं हम

सफ़ी औरंगाबादी

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इतने तो हम-ख़याल दिल-ए-मुब्तला हैं हम
कल जिस से ख़ुश थे आज इसी से ख़फ़ा हैं हम

तुझ से जुदा नहीं हैं जो तुझ से जुदा हैं हम
तेरे ही हैं अगरचे तिरे नक़्श-ए-पा हैं हम

कहते हैं हम को नेक भी बद भी हज़ार-हा
इस की ख़बर नहीं है कि दर-अस्ल क्या हैं हम

रुत्बा बढ़ा दिया है जुनून-ए-फ़िराक़ ने
हम से जुदा हैं आप तो सब से जुदा हैं हम

तासीर-ए-अश्क-ओ-आह ने बदला नहीं मिज़ाज
मुद्दत हुई कि शाकी-ए-आब-ओ-हवा हैं हम

लाखों जफ़ाएँ सह के अब आया है ये ख़याल
मिलते ही क्यूँ हैं उस से जो बे-मुद्दआ हैं हम

वो यास बन गई जो ज़माने की आस थी
आज़ुर्दा आज अपने से बे-इंतिहा हैं हम

जमता है अपने ज़िक्र से अब महफ़िलों का रंग
रहते हैं अपने घर में मगर जा-ब-जा हैं हम

क्या क्या इनायतें हैं बस ऐ चर्ख़-ए-पीर बस
तेरा तसद्दुक़ अब भी किसी से जुदा हैं हम

अब इत्तिफ़ाक़-ए-अहल-ए-वफ़ा तुम को क्या दिखाएँ
महशर में देखना कि ये सब एक जा हैं

मंज़ूर इम्तिहान-ए-दिल-ए-इश्क़-बाज़ है
अब अपने वास्ते भी तो सब्र-आज़मा हैं हम

इस पर मिटे हुए हैं मिटाता है जो 'सफ़ी'
दुश्मन की गा रहे हैं बड़े ख़ुश-नवा हैं हम