इतना आसाँ नहीं मसनद पे बिठाया गया मैं 
शहर-ए-तोहमत तिरी गलियों में फिराया गया मैं 
मेरे होने से यहाँ आई है पानी की बहार 
शाख़-ए-गिर्या था सर-ए-दश्त लगाया गया मैं 
ये तो अब इश्क़ में जी लगने लगा है कुछ कुछ 
इस तरफ़ पहले-पहल घेर के लाया गया मैं 
ख़ूब इतना था कि दीवार पकड़ कर निकला 
उस से मिलने के लिए सूरत-ए-साया गया मैं 
तुझ से कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं थी वर्ना 
एक मुद्दत तिरी दहलीज़ तक आया गया मैं 
ख़ल्वत-ए-ख़ास में बुलवाने से पहले 'ताबिश' 
आम लोगों में बहुत देर बिठाया गया मैं
        ग़ज़ल
इतना आसाँ नहीं मसनद पे बिठाया गया मैं
अब्बास ताबिश

