इसी बाइस ज़माना हो गया है उस को घर बैठे
वो डरती है कहीं कोई मोहब्बत ही न कर बैठे
हमारा जुर्म ये है हम ने क्यूँ इंसाफ़ चाहा था
हमारा फ़ैसला करने कई बेदाद-गर बैठे
कहाँ तक ख़ाना-ए-दिल अब मैं तेरी ख़ैर मानूँगा
ज़रा सैलाब आया और तिरे दीवार-ओ-दर बैठे
मयस्सर फिर न होगा चिलचिलाती धूप में चलना
यहीं के हो रहोगे साए में इक पल अगर बैठे
बहुत घूमा फिरा तू फिर भी ख़ाली है तिरा कासा
उधर तो दौलत-ए-दिल हाथ आई हम को घर बैठे
उड़ा कर ले गई दुनिया हमें किन किन झमेलों में
न फिर फ़ुर्सत मिली हम को न फिर हम उम्र भर बैठे
फ़ज़ा में गर्द के ज़र्रों की सूरत हम मुअल्लक़ हैं
न उड़ने की तमन्ना की न फ़र्श-ए-ख़ाक पर बैठे
उड़ी है ख़ाक यादों की उमीदों की इरादों की
ये मिट्टी थी कि बुझती राख पर हम पाँव धर बैठे
पलट कर जब भी देखा ख़ाक की चादर नज़र आई
न गर्द-ए-राह बैठी है न मेरे हम-सफ़र बैठे
ग़ज़ल
इसी बाइस ज़माना हो गया है उस को घर बैठे
शहज़ाद अहमद