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इश्क़ तक अपनी दस्तरस भी नहीं | शाही शायरी
ishq tak apni dastaras bhi nahin

ग़ज़ल

इश्क़ तक अपनी दस्तरस भी नहीं

सरशार सिद्दीक़ी

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इश्क़ तक अपनी दस्तरस भी नहीं
और दिल माइल-ए-हवस भी नहीं

अब कहाँ जाएँगे ख़राब-ए-बहार
आशियाँ भी नहीं क़फ़स भी नहीं

बर्क़ की बेकसी को रोता हूँ
अब नशेमन में ख़ार-ओ-ख़स भी नहीं

किस ने देखा शगुफ़्तगी का मआल
ज़िंदगी इतनी दूर-रस भी नहीं

हम असीरों के वास्ते सरशार
रस्म-ए-पाबंदी-ए-क़फ़स भी नहीं