इश्क़ की आग में अब शम्अ सा जल जाऊँगा
तुझ लगन बीच क़दम गाड़ न टल जाऊँगा
गर दम-ए-तेग़ से सौ बार कटेगी गर्दन
अपनी साबित-क़दमी सेते सँभल जाऊँगा
मैं वो जाँ-बाज़ ओ हवाला हूँ पतिंगे की तरह
शम्अ-रू तेरे उपर जान से जल जाऊँगा
शजर-ए-मोम सा हूँ आलम-ए-मौहूम के बीच
मेहरबाँ गर्म-निगाही से पिघल जाऊँगा
ख़ाक उड़ाता हुआ हस्ती के तईं दे बर्बाद
सर-ब-सहरा हूँ बगूले सा निकल जाऊँगा
तेरे कूचे की तरफ़ अज़्म किया हूँ जानाँ
आख़िरश यक दो क़दम सर से भी चल जाऊँगा
चश्म-ए-बद-मस्त को गर्दिश में जो लावे साक़ी
अभी दो जाम में सरशार हो चल जाऊँगा
'इश्क़' है बाल से बारीक सिरात-ए-महशर
या-'अली' कह के तभी उस पे सँभल जाऊँगा
ग़ज़ल
इश्क़ की आग में अब शम्अ सा जल जाऊँगा
इश्क़ औरंगाबादी