इश्क़ का रोग तो विर्से में मिला था मुझ को
दिल धड़कता हुआ सीने में मिला था मुझ को
हाँ ये काफ़िर उसी हुजरे में मिला था मुझ को
एक मोमिन जहाँ सज्दे में मिला था मुझ को
उस को भी मेरी तरह अपनी वफ़ा पर था यक़ीं
वो भी शायद इसी धोके में मिला था मुझ को
उस ने ही बज़्म के आदाब सिखाए थे मुझे
वो जो इक शख़्स अकेले में मिला था मुझ को
मंज़िल-ए-होश पे इक मैं ही नहीं था तन्हा
याँ तो हर शख़्स ही नश्शे में मिला था मुझ को
ये भी इक ऐब था मेरी ही नज़र का शायद
रोज़ कुछ फ़र्क़ सा चेहरे में मिला था मुझ को
ऐसे हालात में क्या उस से गिला करता मैं
रात सूरज भी अँधेरे में मिला था मुझ को
मैं अगर डूब न जाता तो वहाँ क्या करता
इक समुंदर था जो क़तरे में मिला था मुझ को
रूह की प्यास बुझाना कोई आसान न था
साफ़ पानी बड़े गहरे में मिला था मुझ को
सच तो ये है कि यहाँ कोई भी मंज़िल ही न थी
वो भी रस्ता था जो रस्ते में मिला था मुझ को
ग़ज़ल
इश्क़ का रोग तो विर्से में मिला था मुझ को
भारत भूषण पन्त